कामदा एकादशी व्रत कथा और महत्व - Kamada Ekadashi Vrat Katha and Mahatva - Today's Ekadashi

Kamada Ekadashi Vrat Katha - कामदा एकादशी व्रत कथा

जय श्री कृष्ण भक्तो, चैत्र शुक्ल पक्ष की एकादशी को कामदा एकादशी के रूप में जाना जाता है। चैत्र नवरात्रि और राम नवमी के बाद यह पहली एकादशी है। अंग्रेजी कैलेण्डर के अनुसार वर्तमान में यह मार्च या अप्रैल के महीने में आती है। आइए जानते है आजके इस पोस्ट मे कामदा एकादशी व्रत की पौराणिक कथा (Kamada ekadashi vrat katha)और महत्व के बारेम पूरी जानकारी। 

भक्तो हमारे हिन्दू शाश्त्रो में बताया गया है की कोई भी व्रत या यात्रा करे तो पहले उनका महात्मय और कथा जरूर सुननी चाहिए, जिनसे यात्रा स्थल और व्रत का फल अधिक मिलता है। आइए जानते है चैत्र माह के शुक्ल पक्ष में आने वाली कामदा एकादशी के महात्मय और व्रत कथा (Kamada ekadashi vrat katha) के बारेमे।  

Kamada Ekadashi ka Mahatva - कामदा एकादशी का महत्व

कामदा एकादशी व्रत कथा और महत्व - Kamada Ekadashi Vrat Katha and Mahatva - Today's Ekadashi

कामदा एकादशी के दिन उपवास करने से सभी प्रकार के पापों से मुक्ति मिल जाती है। हिन्दु धर्म में किसी ब्राह्मण की हत्या करना सबसे भयंकर पाप है। यह माना जाता है कि ब्राह्मण की हत्या का पाप भी कामदा एकादशी का व्रत उपवास करने से मिट जाता है। 

Kamada Ekadashi Vrat Katha - कामदा एकादशी व्रत कथा

धर्मराज युधिष्ठिर कहने लगे कि हे माधव!.. आपको कोटि-कोटि नमस्कार करता हो, अब आप कृपा करके चैत्र शुक्ल एकादशी का महात्म्य मुझे कहिए। तब भगवान श्रीकृष्ण कहने लगे कि हे धर्मराज। यही प्रश्न एक समय राजा दिलीप ने गुरु वशिष्ठ से किया था और जो समाधान उन्होंने किया वो सब मैं तुमसे कहता हूं।

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प्राचीनकाल में भोगीपुर नामक एक नगर था। वहां पर अनेक ऐश्वर्यो से युक्त पुण्डरीक नाम का एक राजा राज्य करता था। भोगीपुर नगर में अनेक अप्सरा, किन्नर तथा गन्धर्व वास करते थे। उनमें से एक जगह ललिता और ललित नाम के दो स्त्री-पुरुष अत्यंत वैभवशाली घर में निवास करते थे। उन दोनों में अत्यंत स्नेह था, यदि वे एक दूसरे से कुछ समय के लिए अलग हो जाते तो अत्यंत व्याकुल हो उठते थे।

एक समय राजा पुण्डरीक की सभा में अन्य गंधर्वों सहित ललित भी गान कर रहा था। गाते-गाते उसको अपनी प्रिय ललिता का ध्यान आ गया। उसका स्वर भंग हो गया जिसके कारण गाने का स्वरूप बिगड़ गया। कार्कोट नामक नाग ने ललित के मन के भाव जान लिए और पद भंग होने का कारण राजा को बता दिया। तब पुण्डरीक ने क्रोधपूर्वक कहा कि तू मेरे सामने गाता हुआ अपनी स्त्री का स्मरण कर रहा है। अत: तू कच्चा मांस और मनुष्यों को खाने वाला राक्षस बनकर अपने किए कर्म का फल भोग।

पुण्डरीक के श्राप से ललित उसी क्षण महाकाय विशाल राक्षस बन गया। उसका मुख अत्यंत भयंकर, नेत्र सूर्य-चंद्रमा की तरह प्रदीप्त तथा मुख से अग्नि निकलने लगी। उसकी नाक पर्वत की कंदरा के समान विशाल हो गई और गर्दन पर्वत के समान लगने लगी। सिर के बाल पर्वतो पर खड़े वृक्षो के समान लगने लगे तथा भुजाएं बहुत लंबी हो गई। उसका शरीर आठ योजन के विस्तार में हो गया। इस तरह से वह राक्षस बनकर अनेक प्रकार के दुःख भोगने लगा।

जब उसकी प्रियतमा ललिता को यह सारा वृत्तांत ज्ञात हुआ तो उसे अत्यंत दुख हुआ। वह अपने पति के उद्धार का यत्न सोचने लगी। वह राक्षस अनेक प्रकार के घोर दुःख सहता हुआ घने जंगलों में रहने लगा। ललिता उसके पीछे-पीछे जाती और विलाप करती रहती। एक बार ललिता अपने पति के पीछे घूमती-घूमती विन्ध्याचल पर्वत पर पहुंच गई, वहां श्रृंगी ऋषि का आश्रम था। ललिता शीघ्र ही श्रृंगी ऋषि के आश्रम में गई और वहां जाकर प्रार्थना करने लगी।

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उसे देखकर श्रृंगी ऋषि ने कहा कि हे सुभगे! तुम कौन हो और यहां किस लिए आई हो? तब ललिता बोली कि हे मुनीश्वर। मेरा नाम ललिता है। मेरा पति राजा पुण्डरीक के श्राप से विशालकाय राक्षस हो गया है। कृपा करके उसके उद्धार का कोई उपाय बतलाइए। श्रृंगी ऋषि बोले हे गंधर्व कन्या। अब चैत्र शुक्ल एकादशी आने वाली है, जिसका नाम कामदा एकादशी है। इसका व्रत करने से मनुष्य के सब कार्य सिद्ध होते हैं। यदि तू कामदा एकादशी का व्रत कर उसके पुण्य का फल अपने पति को दे तो वह शीघ्र ही राक्षस योनि से मुक्त हो जाएगा और राजा का श्राप भी अवश्यमेव शांत हो जाएगा।

मुनि के ऐसे वचन सुनकर ललिता ने चैत्र शुक्ल एकादशी आने पर उसका व्रत किया और द्वादशी को ब्राह्मणों के सामने अपने व्रत का फल अपने पति को देती हुई भगवान से इस प्रकार प्रार्थना करने लगी कि हे प्रभु। मैंने जो यह व्रत किया है, इसका फल मेरे पतिदेव को प्राप्त हो जाए, जिससे वह राक्षस योनि से मुक्त हो जाए। एकादशी का फल देते ही उसका पति राक्षस योनि से मुक्त हो गया और उसे अपना पुराना स्वरूप प्राप्त हुआ। वह फिर अनेक सुंदर वस्त्राभूषणों से युक्त होकर ललिता के साथ विहार करने लगा। उसके पश्चात वे दोनों विमान में बैठकर स्वर्गलोक को चले गए।

वशिष्ठ मुनि कहने लगे कि हे राजन। इस व्रत को विधिपूर्वक करने से समस्त पाप नाश हो जाते हैं तथा राक्षस आदि की योनि भी छूट जाती है। संसार में इसके बराबर कोई और दूसरा व्रत नहीं है।

समापन - 

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